बचपन मे किसी रोज़
गांव छोड़ शहर आ गया था
पढ़ाई का तकाजा था शायद
या कोई और बात रही होगी
ठीक ठीक याद नही
इतना जरूर याद है
की गांव के खड़ंजे से
ज्यादा मुलायम थी करायल की सड़क
जिसपर सनसनाती हुई
गुजरी थी मेरी गाड़ी
गाड़ी पर लदी थी मेरी साइकिल,
दादी का संदूक, कुछ पौधे,
डेहरी का थोड़ा अनाज
अचार का एक डिब्बा भी था
करीब करीब सब कुछ था
जो शहर में गांव जैसा आभास कराता
लेकिन हर बड़ी यात्रा में
छूट जाती है कुछ मामूली चीजें
छूट गया था उस दिन भी
वो बन्दर, जो आता था कभी कभार
छत पर सूख रहे गेहूं खाने
वी मिट्टी का ढेला और मधुमक्खी का छत्ता
वो दोनों भी छूट गए
मेरी लकड़ी की लढिया छूट गयी
घर के सामने रखी पुआल भी छूट गयी
आज शहर आये पन्द्रह वर्ष हो गए
गांव जाना होता है कभी कभी
लेकिन वो सब जो छूट गया था
वो नही दिखा कभी उसके बाद
शायद किसी रोज़ वे सब भी
उसी गाड़ी में बैठकर
आ गए होंगे शहर की ओर ....
My writings are nothing but what is being schooled to me by my life and its various facets
Tuesday, September 25, 2018
स्मृतियाँ..
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