मैं देख पा रहा हूँ,
सर्द हवाओं का सहलाना
अलाव का मुस्कुराना
हाथ फैलाये खड़े लोग
जैसे कोई शाही भोज
हवा में तैरती बातें
पुआल पे सोती रातें
धीमी धीमी सी आवाज़
" ठंडी बढ़ गयी है आज"
मैं देख पा रहा हूँ
द्वार पर एक नन्हा बालक
अपनी लढिया का चालक
न अलाव से कोई मित्रता
न कुहरे से कोई शत्रुता
चल रहा है समय के साथ
कस कर पकड़े उसका हाथ
मैं पूछ रहा हूँ समय से
ठंडी पड़ी अलाव की आग का पता
कहां गए बाबा तू ये भी बता
कहां गयी मेरी प्यारी लढिया
खटिये पर सो रही वो बुढ़िया
पुआल पर सो रहे वो लोग
आह ये वियोग!आह ये वियोग!
@आकर्ष शुक्ल विद्रोही
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