किसी जश्न की तरह नही
न किसी त्रासदी की तरह
जब भी आना
एक चोट बन कर आना
हल्की और गहरी चोट
तुम्हारे चले जाने के बाद
मेरा वादा है तुमसे
मैं तुम्हारे निशान
अपनी इस त्वचा पर
सम्भाल कर रखूंगा
-- आकर्ष
My writings are nothing but what is being schooled to me by my life and its various facets
मैं देख पा रहा हूँ,
सर्द हवाओं का सहलाना
अलाव का मुस्कुराना
हाथ फैलाये खड़े लोग
जैसे कोई शाही भोज
हवा में तैरती बातें
पुआल पे सोती रातें
धीमी धीमी सी आवाज़
" ठंडी बढ़ गयी है आज"
मैं देख पा रहा हूँ
द्वार पर एक नन्हा बालक
अपनी लढिया का चालक
न अलाव से कोई मित्रता
न कुहरे से कोई शत्रुता
चल रहा है समय के साथ
कस कर पकड़े उसका हाथ
मैं पूछ रहा हूँ समय से
ठंडी पड़ी अलाव की आग का पता
कहां गए बाबा तू ये भी बता
कहां गयी मेरी प्यारी लढिया
खटिये पर सो रही वो बुढ़िया
पुआल पर सो रहे वो लोग
आह ये वियोग!आह ये वियोग!
@आकर्ष शुक्ल विद्रोही